Saturday, July 18, 2009

ग़ज़ल

एक मासूम मुहब्बत पे मचा है घमसान
दूर तक देख समन्दर में उठा है तूफ़ान

एक लड़की थी सिखाती थी जो खिल कर हंसना
आज याद आई तो हो आई है सीली मुस्कान

एक वो मेला वो झूला वो मेरे संग तस्वीर
क्या पता खुश भी कहीं है के नहीं वो नादान

फिर से बचपन हो तेरा शहर हो और छुट्टियां हों
काश मैं फिर रहूँ कुछ रोज़ तेरे घर मेहमान

एक मुंडेर पे इक गाँव में इक नाम लिखा है
रोज़ उस में से ही खुलता है ये नीला असमान

('मैं और बोगनवीलिया' में से)

4 comments:

  1. हुज़ूर आदाब अर्ज़ है !
    आपको बारहा पढा है ....और हर बार
    नयी ताज़गी महसूस की है...यही आपके
    लेखन का कमाल है ...
    ये शेर ख़ास तौर पर पसंद आया है
    "एक वो मेला वो झूला वो मेरे संग तस्वीर
    क्या पता खुश भी कहीं है के नहीं वो नादान"
    मुबारकबाद कुबूल फरमाएं
    ---मुफलिस---

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  2. please visit 'aajkeeghazal.blogspot.com"
    for tar`hi mushaayra...
    i wish you to participate......
    ---MUFLIS---

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  3. bahut hi khoobsurat gazal
    main to hamesha kahti rahi hoon
    main aur bogan viliya jaisi gazal sangrah kam hi nikli houngi jiski har gazal mein baat hai har sher kamaal
    anmol mitiyon ka kazana

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