Tuesday, November 10, 2009

ग़ज़ल

मक़बरों सा है सुकूत, ऐ दिल घरों के दरमियाँ
चल कहीं इक घर बना लें मक़बरों के दरमियाँ

काफ़िरों के संग तो कट जाएगी मेरे ख़ुदा
ज़िन्दगी दुशवार है पर कायरों के दरमियाँ

बुद्ध की प्रतिमाएं तुमने तोड़ दीं अच्छा किया
बुद्ध की रूह घुट रही थी पत्थरों के दरमियाँ

आप भगवा डाल कर मठ में रहो आराम से
काम क्या है जंगजूओं सरफिरों के दरमियाँ

मुंह से निकला आपकी मर्ज़ी से साँसे चल रहीं
और तो हम क्या बताते मुखबिरों के दरमियाँ

('मैं और बोगनवीलिया' से)

Monday, November 9, 2009

ग़ज़ल

मज़हबी अफ़साद में फिर से कटी भारी फ़सल
बच गये हम गिर गया है कोख से लेकिन हमल

देखिये तो देखिये इस दौर की बस इर्तिक़ा
जाने दीजे दिल अगर रह-रह के जाता है दहल

ज़हन-ए-मामूली में मेरे बात ये आती नहीं
दौर-ए-हाज़िर में अगर है क्या है अल्लाह का फ़ज़ल

दिल अगर हो आह-ए-मज़लूमां से जाता है झुलस
खौलते शोरे से भी पत्थर नहीं जाता पिघल

फ़र्क़ करती ही नहीं कुछ रहमत-ए-सुख़न और फ़न
मुफ़लिस-ए-बेदाग़ हो या हो शहंशाह-ए-मुग़ल
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चाँद होता है मुक़म्मल देखता पाके तुझे
झील में खिलते हैं तुझको देखता पाके कँवल

तुम हो मंगल की तरह जिसके हैं दो दो चन्द्रमाँ
एक तो मैं हूँ मेरी जां एक है मेरी ग़ज़ल
(प्रकाशित: 'कान्ति' मासिक)

ग़ज़ल

उठी जो शायरी अगर समझ ले लक्ष्मीबाई है
क़लम नहीं है हाथ में मिरे दियासलाई है

जो चुन रहे हो रहनुमाई छल करेगी सोच लो
ये मेरी आप-बीती है ये ख़ुद की आज़माई है

ये लोग बेच-बाँट कर धरोहरों को खा गये
बची-खुची महानता हमारे हिस्से आई है

जहां कहीं भी ज़िन्दगी ने मुझको आज़माया है
तो मेरे साथ में खड़ी मिरी शिकस्तापाई है

जो दिल धड़क गया कहीं तो दर्द फन उठाएगा
ये याद जाग जाये न अभी-अभी सुलाई है
-('मैं और बोगनवीलिया' से)