Friday, September 4, 2009

ग़ज़ल

मैं मुक़द्दर से मुनकिर न था जब गया
लौट कर आ गया नौकरी लग गया

ज़िन्दगी के सवालों के हल ढूंढता
जागता हूँ अभी एक फिर बज गया

ये हक़ीक़त डराती है हर रात को
मैं भी इतिहास के ढेर में दब गया

एक अच्छे दिनों का भी था काफ़िला
ना भनक तक लगी किस तरफ़ कब गया

रोज़ जब डूबता है समंदर में दिन
दिल भी लगता है बस अब गया अब गया

-सतीश बेदाग़
('मैं और बोगनवीलिया' में से)