Friday, July 10, 2009

ग़ज़ल

बात जो पानी में घुलती जाती गुरबानी में थी
बात वो बस तेरे ही चेहरा-ए-नूरानी में थी

एक मछली की तरह थी ज़िन्दगी तेरे बिना
ताज़ा पानी से निकल जो खौलते पानी में थी

अब कहाँ वो छुट्टियां और अब कहाँ बचपन के दिन
ज़िन्दगी थी चार दिन जो तेरी मेहमानी में थी

शहर में आकर तो हम भी कुछ कमीने हो गए
एक वो जाती रही जो बात नादानी में थी

हाँ बहुत सामान है खाने को पीने को यहाँ
एक भी डिश में नहीं जो बात गुडधानी में थी

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