Tuesday, November 10, 2009

ग़ज़ल

मक़बरों सा है सुकूत, ऐ दिल घरों के दरमियाँ
चल कहीं इक घर बना लें मक़बरों के दरमियाँ

काफ़िरों के संग तो कट जाएगी मेरे ख़ुदा
ज़िन्दगी दुशवार है पर कायरों के दरमियाँ

बुद्ध की प्रतिमाएं तुमने तोड़ दीं अच्छा किया
बुद्ध की रूह घुट रही थी पत्थरों के दरमियाँ

आप भगवा डाल कर मठ में रहो आराम से
काम क्या है जंगजूओं सरफिरों के दरमियाँ

मुंह से निकला आपकी मर्ज़ी से साँसे चल रहीं
और तो हम क्या बताते मुखबिरों के दरमियाँ

('मैं और बोगनवीलिया' से)

1 comment:

  1. मुंह से निकला आपकी मर्ज़ी से साँसे चल रहीं
    और तो हम क्या बताते मुखबिरों के दरमियाँ


    बहुत खूब

    वीनस केशरी

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