मज़हबी अफ़साद में फिर से कटी भारी फ़सल
बच गये हम गिर गया है कोख से लेकिन हमल
देखिये तो देखिये इस दौर की बस इर्तिक़ा
जाने दीजे दिल अगर रह-रह के जाता है दहल
ज़हन-ए-मामूली में मेरे बात ये आती नहीं
दौर-ए-हाज़िर में अगर है क्या है अल्लाह का फ़ज़ल
दिल अगर हो आह-ए-मज़लूमां से जाता है झुलस
खौलते शोरे से भी पत्थर नहीं जाता पिघल
फ़र्क़ करती ही नहीं कुछ रहमत-ए-सुख़न और फ़न
मुफ़लिस-ए-बेदाग़ हो या हो शहंशाह-ए-मुग़ल
**** ****
चाँद होता है मुक़म्मल देखता पाके तुझे
झील में खिलते हैं तुझको देखता पाके कँवल
तुम हो मंगल की तरह जिसके हैं दो दो चन्द्रमाँ
एक तो मैं हूँ मेरी जां एक है मेरी ग़ज़ल
(प्रकाशित: 'कान्ति' मासिक)
Monday, November 9, 2009
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hai gzl ye khoobsurat, khoob-sa izhaar hai
ReplyDeleteparh ke saare lafz, mn ki raah ho jaaye sajal
ghazal 'Bedaag' ki
salaam 'muflis' ka
qubool farmaayiye huzoor !!
दिल अगर हो आह-ए-मज़लूमां से जाता है झुलस
ReplyDeleteखौलते शोरे से भी पत्थर नहीं जाता पिघल
wah